समेटी आपनों स्वामी के तस्वीर देखतें एतन्हें भर बोललै, “आरो कर्ते परीक्छा लैले चाहै छौ, स्वामी ! एतन्हौ तें सोचों, जनानी जात छेकै, विपत्ति एक सीमाहै तक सहें पारें, जों परीक्छाहै लैले चाहै छौ, ते पुरखे नाँखी कोनी पत्थर के करी दा, आरो की कहियौं।” ऐतना कही ऊ झट सना हुड़का हटाय के एंगनों आवी गेलै। एंगनों के टटिया हटैलकै, आरो भैंसुर के द्वारी पर आवी गेलै, माथा पर घूंघट लेलें। जौत के नाम लैकें पुकारलकै, "टुनु, बाहर निकलियों।”
रात के बारह बजते होतै, ओकरा सॅ कम नै, घोर भरी एक्के दाफी हड़बड़ाय के उठी गेलै। सब बाहर निकललै, तें सत्ती सीधे आपनों ऐंगना चली पड़लै। सब बुझी गेलै, जरूर कोय बात होय गेलों छै। ऊ आपनों कोठरी पहुँचतियै, एकरों पहिले गोतनी, जयधि, जौत, सब ऊ कोठरी दिस दौड़ी पड़लो छेलै, कोय भारी अनिष्ट के आशंका से धड़धड़ैलो। अमरजीत अभियो वहा रं खटिया पर कुर्रही रहलों छेलै, तब तांय आशु बाबुओ आवी गेलो छेलै। कोठरी में हुनको ढुकतैं सब हटी गेलै, सत्ती ते बाहरे मोखा लगी खाड़ों रहलों, एकदम पत्थल बनलों | अमरजीत के पीठ होन्हे उघारों छेलै, जेना वैं छोड़ी के गेलों छेलै, से सबसे पहले आशु बाबू के वहीं ठां नजर पड़लै। अनुभवी आँख, जानै में कटियो टा देर नै लागलै, ई तें चाबुक के मार के चेन्हों छेकै - के मारले होते, कैन्हें मारले होते, ई सब सोचले बिना, हुनी बाहर निकललै आरो ऐंगना में रखलों लालटेन के रास उसकाय के नदी दिस के झबरलों झाड़ी ओर चली देलकै, बिना एकरों खयाल करल्हैं, कि रातकों पहलों पहर बीती चुकलों छै।
ऐलै, तें बायां हाथ में लालटेन आरो दायां में कुछ लोत- पतार लटकी रहलों छेले, जेकरै से हुनी घावों पर रस चुवैते रहलै, आरो फेनु साफ कपड़ा के पट्टी बनाय घावों से बान्ही देले छेलै। बाहर निकले लागलै, ते बोललै, "घबड़ाय के बात नै छै, नींद तें कुछुवे देरी में आवी जैतै आरो भोरे से घावो चोखाबें लागतै।”
आशु बाबू ई बात ओतने टा तेज आवाज में बोललो छेलै कि बाहर मोखा से सट्ठी के खाड़ी सत्ती सुनी लें, आरो हुनी कोठरी से बाहर निकली, लालटेन ऐंगनै में राखले छेलै; फेनु टटिया सटाय के आपनों ऐंगनों आवी गेलै, अपनी कनियैनी के वहीं रहै के इशारा करतें। आशु बाबू के बड़की