कि तखनियै आपनों माथों पर अँचरा लेलें आपनों ऐंगना से सत्ती बाहर निकललै आरो दुआरी के चौखटी से सट्टी के खाड़ों होय गेलै। घूँघटा से कुछ देखलकै आरो आपनों दायाँ हाथ के थोड़ों आगू बढ़तें हुऍ कहलकै, “आर्बे कोय पोर-पंचेती करै के जरूरत नै छै। हम्में ई सोची लेतियै कि आर्बे अमर के ई गाँव में नै रखना छै। अमर के बाबू सरंग सिधारी गेला, मतरकि अभियो विपत वक्ती हुनी हमरों साथ नै छोड़ै छोत। आबे हुनके आदेश मानी हमें ई तय करी लेले छियै कि अमर के तगेपुर पहुँचाय ऐवै, अमूलदा कन। वहीं रहतै, ते दादा के आशीर्वाद से दू अच्छर पढ़ी भी लेतै; नै तें यहाँ लभारे रँ करतै जिनगी काटी लेतै। गाँव भरी हमरा सुक्खों-दुक्खों में साथ देनें ऐलो छै, आबें अमरजीत के लैके हम्मे आपनों गोतिया-लोय्या नाँखी टोला - पड़ोसा से मनमुटाव नै लिएँ पारौं। विधाता विपरीत होतियै, ते अमर घुरी के घोर नै ऐतियै | हिनी खाली गुलगुलीजी के बाबू से एतनाहै पता करवाय दियै कि पंचक कहिया से कहिया तक पड़ै छै। बस।” आरो एतना कही के वैं अँचरा के खोपों तक लै आनले छेलै; सीधे आपनों ऐंगनों दिस मुड़ी गेल छेलै। एक घनघोर चुप्पी के पीछू छोड़तें होलें। जे जहाँ छेलै, होन्है के रही गेलों छेलै, जेना देख हैं - देख सब माँटी आरो पत्थल रॉ मुरु ।
(३)
“बस, आय से अमरजीत के ई मंडली से छुट्टी" बदरी ने दायाँ मुट्ठी उठाय के कसलों ओंगरी सिनी के ई तरह झटका से खोली देलें छेलै, जेना सामन्है में बैठलों कोय चिड़िया के उड़ैते रहें। "तोहें तें हेनों आपनों निर्णय सुनाय देल्हैं, जेना तोहीं मुंशी - मुंसफ रहैं।” सिमरन कें गुस्सा आवी गेलों छेलै। “एकरा में मुंशी - मुंसफ के कोय बाते नै छै। हम्में अमर के मंडली में नै राखे लें चाह्रै छियै, यहू बात नै छै, मतरकि जानी ले, जों ओकरा कुछ होतो, तें एकरा में एक नै फँसवे, सत्ती बोदी मंडली भर पर ढेंस लगैतौ, जानी