चिचकखा चौबीसवी पुतली १२५ किया था, पर तू अब मेरे तईं उस के घर ले चल. हरकारे ने कहा अच्छा, महाराज ! मैं हाज़िर हूं चलिये * राजा हरकारे को से उस के मकान पास आया, और उस को बिदा किया, पिछवाड़े चौबारे के एक खिड़की थी, उस में से चिराग़ की जोति नज़र आती थी, और कभी२ जो वह झांकती थी तो उस की झलक भी मअ़लूम होती थी, जब दोपहर रात गुज़री, और खू़ब अंधेरी होगई तब राजा ने उधर से एक कंकरी उस खिड़की में मारी, लगते ही वह झांक राजा को देख वह जाना कि वोही शरद्ध़ आन पहुंचा, फिर उस ने तमाम घर का जवाहिर, और सब गहना एक डिब्बे में भरा, और साथ लेकर, निकल राजा के पास आई, कहा कि यह से और मुझे लेचल. राजा ने कहा कि यों तो मैं तुझे न ले जाऊंगा, क्योंकि, तेरा ख़ाविन्द जोता है, जो कभी ख़बर पावे तो राजा के दरबार फ़रथाद को जावे, राजा तुझे मुझे मार डालेगा, इसे बिहतर यह हे, कि पहले, तू उसे मार, फिर आ जो निकंटक हो हम तुम सुख भोग करें * उस ने बिखंब कुछ न किया सुनते ही घर में जा कटारी ले, ख़ाविन्द को मार फिर चखी आई, और वह जवाहिर का डिब्बा राजा को दिया, दोनों इस त़रह़ नगर से बाहर गये, आगे२ राजा, और धौके२ वह खी, जब नदी किनारे पहुंचे, तब राजा वहां खड़ा हुअा, और अपने जी में विचार करने लगा, कि जिस ने अपने खामी के जारने में बिखंव न किया, उस से दूसरे को क्या तवज़ुअ़ होगी, अब इस से जुदा हजिये, और इख का चरिच देखिये, कि अब यह क्या करती है? यह दिल में विचार कर राजा ने कहा,