कपारों परकों टेटनों छेलै, जे पचकै के बदला दिन-दिन बढ़ले जाय रहलों छेलै।
महीना भरी सत्ती गाँमे में रहलों छेलै, केकरी ऐंगन-दुआर ऐवों-जैवों लगभग छुटिये गेलों छेलै। घरे के काम में मन लगैले राखे। नै हुऐ ते बारी से मिट्टी कोड़ी लै आनै आरो ओकराम भूसों आरनी मिलाय के देर तांय पिटना से पिटते रहे, नहाय में भले जते देर होय जाय। फेनु जगह-जगह से फाटलों भीत भरिये के नहाय लें जाय। पुरानों घोर; कै साल से तें हिन्न हुन्ने से ढनमनैलो - भसकलो दीवारी पर माँटी के लेपो नै चढ़लों गेलो छेलै।
सत्ती सोचलें छेलै, फूलमती के बीहा से पहिले वैं जरूरे भीत आरनी भरवाय लेतै, होलै तें माँटी सॅ ढोरवैय्यो लेतै, मतर आरो सब सरंजामों में ऊ हेने उलझलो रहलै कि एकरों दिस ध्यानो नै गेलै। आबें जबें आरो कोय काम नै दिखावै छै, ते पाँच-छो रोजों के बाद दू-चार बाल्टी माँटी कोड़ी लै आनै छै; एक दिन गूंथै छै आरो दोसरों दिन दीवार के दरार, छेद के मूंदना शुरू करी दै छै। असल तें बड़के कोठली के चिंता छेलै, जेकरों चारो कोना के चारो दीवार, जे साल, दू साल पहले एकदम सटलों-सटलों रहै, ऊ वर्षा-पानी के कारण ऊपर-ऊपर से अलग-अलग दिखावे लागलों छेलै। पहिले तें ओक भरना जरूरी छेलै, से ओकरों दिन आसानी से कटी जाय।
अकेली होतियै, ते आपनों ले खानाओ नै बनैतियै, मतर घरों में दू- दू बेटा छेलै, भला चूल्हा- निवारण केना होतियै।
सोमवारी, मंगलवारी के उपास ते ओकरों जगजाहिर छेलै, मतर है कोय्यो नै जानै छेलै, कभियो-कभियो तीन-तीन दिन तांय वै मुँहों में कुछ नै दै, खाली थोड़ों-सा गुड़ आरो लोटा भर पानी। तभियो चेहरा के चमक होन्हे, कि कोय्यो कुछ पकड़ै नै पारे।
तखनी उपास में रही जाय के कारण छेलै, आबें तें बड़ों बेटा एत्ते पढ़ी-लिखी लेलें छेलै कि ऊच्चों इस्कूलो के लड़को के पढ़ावें पारें।
भोरे आरो साँझ दू बेरा सत्ती के ऐंगन में छोटों रं इस्कूले लागै छै। दू-तीन टोलों के चार-पाँच घरों के बुतरु आवी जाय छै, आरो मूड़ी हिलाय- हिलाय के घंटा भरी अक्षर घोकर्ते रहै छै। विहनकी वक्ती अक्षर ज्ञान करैलो जाय छै,