ऐलों आँखी के अँचरा से पोछी लेले छेलै ।
“अच्छा, छोड़ों ई सब बातों कें" आशु बाबूं अपनी जनानी के ऊ स्थिति देखी के कहलकै, "हम्मू कहाँकरों-कहाँकरों बात लैक तोरों लुग बैठी जाय छियै | मतुर एतना ते छेवे नी करै कि बोमाँ के है सब कामों से कुल खानदान के माथों झुकवे नी करै छै । कोय कामों से जों ससुराल आकि नैहरों परिवार के कान-नाक करें, तें हौ काम की करना चाही ?"
" एकरा से बेसी चिंता के बात है कि इखनी अमर के माय छै कहाँ । भागलपुरों में, की बौंसी के कोय धर्मशाला में ? कथू से बेसी यहा बातों के खयाल करना जरूरी छै ।"
“ओकरे चिंता में गाँव निकली रहलो छियै । नै होलै ते चतुरानन सें भी मिलवै । नहियो सबटा सच बतैतै, एतना तें बतैतै नी कि बोमाँ आखिर छै कहाँ ?"
"बहुत जरूरी छै । जा ! हम्मू हिन्ने हुन्ने से टोह लैके कोशिश करै छियै | नै होलै तें सीधे खिरनी धनुकायन से पूछवै । हमरा से तें कुछु नहिये नी छिपावें पारें । "
“बड्डी बढ़ियाँ। तें, हम्में निकलै छियौं । कुछ बेरी होय जाय, ते अंदेशा नै करियों आरो हों, जो यही बीचों में अजनासी आवी जाय, तें बैठाय के राखियौ !” एतना कही आशु बाबू ऐंगना से निकली, केवड़ा भिड़काय देले छेलै, आरो प्राती माय नै जानौं कर्ते देर कोन बातों के सोचों में डुबलों, वहीं, होन्है के बैठले रही गेलों छेलै ।
(१४)
“केकरों हँकारों लैकें ऐलों छों, तोहें तें कोय-नै-कोय केकरो हँकारे लैकें आवै छो ।” खिरनी धनुकायनें खटिया पर बैठले-बैठले अजनसिया सें कहले छेलै ।
“बस, हँकारे समझों, चाची। होना के जाना छेलै पहिले विन्देसर