(२३)
के जानै छेलै समय ए जल्दी-जल्दी बीतें लागतै। सत्ती के तें यहू नसीब नै होलों छेलै कि वैं हाथों हाँड़ी देखें सकें आरो अमर नौकरी पर जाय लें धड़पड़-धड़पड़|
असल में होलों छेलै ई कि नौकरी के कागज ते आवी गेलो छेलै, दस रोज पहिले, मतर पोस्टमास्टर साहब आपनों घोर चल्लों गेलो छेलै। आबे शहर के तें डाकघर छेकै नै कि एक डाकिया बीमार रहें, तें दोसरों डाकिया तैयार मिलै छै। ई गाँव के डाकघर छेलै। बस लै दैकें एक्के आदमी, ओक चिट्ठी छाँटना छेलै आरो फेनु बाँटनाही छेलै। पोस्टमास्टर रहवो करै, तें चिट्ठी होन्हौ के तीन-चार दिन बादे बँटावै, यहाँ तें पोस्टमास्टरे घोर गेलों छेलै, जब तांय ऐतियै नै, तें चिट्ठी केना मिलतियै।
डाकघर खुल्ला होतियै, तें केकरौ नै केकरौ वहाँ भेजियो देतियै- यहां तें डाकघरे दस रोजों से बंद छेलै। जबें नौकरीवाला सरकारी पत्र मिललै, तें ज्वायन करै वास्तें तीन दिन बचलों छेलै आरो जाना छेलै, राँची। घोर भरी के हाथ-गोड़ फूले लागलों छेलै, आबें एत्ते जल्दी केना सबकुछ सड़ियैलों जैतै!
अभी जे कनियैन के हाथों के मेंहदियो नै छुटलों छेलै, ओकरों हाथ-गोड़ों में पंख लागी गेलों छेलै। होना के घरों में सड़ियाय वास्तें चीजे की छेलै, तभियो जतन्है टा छेलै । सड़ियाना ते छेवे करलै, फेनु लुरगरी बहू होय के परिचयो तें देनाहै छेलै। रास्ता भरी वास्तें खाय-पीयै के समानो बनाना समेटना छेलै। मतर अमरजीत ई सब बातों से उदासीन, माय के मनावै में लागलों होलो छेलै, "देख माय, तोहें असकल्ली यहाँ रहिये के की करवे? बेकारे बच्चावाला जिद लैकें बैठलों हैं कि डीह छोड़ी के हम्मे परदेस में रहे नै पारहौं। हम्में पूछे छियौ, की राखलों छै, ई डीह आरो ढाबर में ? बाबू के नै रहला के बाद कॉन कटियो टा सुख देलें छै, ई घरें | हम्मूं घर से बाहिरे रहलां आरो तहूँ भाय-भौजाय कन, हमरा सिनी लें मुँहे जोगे में बाहरे-बाहर रहले। घरों के कोन कोना सलामत है, कखनी कॉन बरसातों में ढनमनाय जाय, कहनौ मुश्किल।”
अमरजीतें मनों के बात राखी देले छेलै, मतर सत्तीं कुछ नै बोललों