शकु । (फिरकर) छोडो छोडो। हे पुरुवंशी नीति का पालन करो। यधपि मैं काम से पीडित हूँ तौ भी पराधीन हूँ। देखो श्राश्रम में तपस्वी लोग इधर उधर फिरते हैं॥ दुष्य । हे कामिनी गुरुजनों का कुछ भय मत कर। काहे से कि कन्व धर्म को जानते हैं। तुफे दोष न देंगे। बहुतेरी ऋषी दोष नहीं लगाया॥ शकु । श्रज्छल छोड दो। मैं श्रपनी सखियों से कुछ कह आऊ। (थोढी दूर गई फिर पीछे को देखकर) हे पुरुवंशी यधपि तुम्हारी इच्छा पूरी नहीं हुई हैं श्रौर मैं ने केवल क्षखमाच बातें ही कर लेने दी हैं तौ भी शकुन्तला को भूल मत जाना। दुष्य । हे सुन्दरी तू चाहे जितनी दूर जा मेरे ह्र्दय से न्यारी न होगी। जैसे वर्क्ष हकी छाया चाहे जितनी बढे जड को नहीं छोड-तौ है॥ शकु । (कुछ चलकर श्राप ही श्राप) क्या करूँ। इस ने इतनी बिनती को है कि मेरे पैर श्रागे को नहीं पडते हैं। श्रब वृक्षों की श्रोट बैठकर देखूँ तौ यह मुफे कैसा चाहता है॥ (वृक्षों में बैठ गई) दुष्य ।(श्राप ही श्राप) हाय मुफ स्नेही को छोडकर यह ऐसी जाती है मानो कभी पहचान ही न थी। शरीर को तौ कोमल है परंतु मन की बडी निटुर है। जैसे सिरस का फूल तौ नरम होता है परंतु डाली कठोर होता है॥ शकु । (श्राप ही श्राप) यह सुनकर श्रब मुफ में चलने की सामर्थ्य नहीं रही॥ दुष्य । (श्राप ही श्राप) श्रब प्यारी के बिना इस सूने ठौर में क्या करूँगा। (चल दिया फिर श्रागे देखकर बोला) श्रहा श्रच तौ कुछ ठहरूंगा। क्योंकि उस की हाथ से गिरी यह कमलनाल की पहूँची जिस में उशीर कि सुगन्ध
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