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राजस्थान की

रजत बूंदें

असर छोड़ेगा। इसलिए इतना रंगीन समाज कुंडियों को सिर्फ़ सफेद रंग में रंगता है। सफेद परत तेज धूप की किरणों को वापस लौटा देती है। फोग की टहनियों से बना गुंबद भी इस तेज धूप में गरम नहीं होता। उसमें चटक कर दरारें नहीं पड़तीं और भीतर का पानी ठंडा बना रहता है।

पिछले दौर में किसी विभाग ने एक नई योजना के अंतर्गत उस इलाके में फोग से बनने वाली कुंडियों पर कुछ प्रयोग किए थे। फोग के बदले नई आधुनिक सामग्री-सीमेंट का उपयोग किया। प्रयोग करने वालों को लगा होगा कि यह आधुनिक कुंडी ज़्यादा मजबूत होगी। पर ऐसा नहीं हुआ। सीमेंट से बनी आदर्श कुंडियौं का ऊपरी गुंबद इतनी तेज गरमी सह नहीं सका, वह नीचे गहरे गड्ढे में गिर गया। नई कुंडी में भीतर की चिनाई भी रेत और चूने के बदले सीमेंट से की गई थी। उसमें भी अनगिनत दरारें पड़ गई. फिर उन्हें ठीक करने के लिए उनमें डामर भरा गया। 'मरुभट्टी' में डामर भी पिघल गया। वर्षा में जमा किया सारा पानी रिस गया। तब लोगों ने यहाँ फिर से फोग, रेत ओर चूने से बनने वाली समयसिदृ कुंडी को अपनाया और आघुनिक सामगई के कारण उत्पन्न जल संकट को दूर किया।

मरुभूमि में कहीं-कहीं खड़िया पट्टी बहुत नीचे न होकर काफी ऊपर आ जाती है। चार-पांच हाथ। तब कुंई बनाना संभव नहीं होता। कुंई तो रेजाणी पानी पर चलती है। पट्टी कम गहराई पर हो तो उस क्षेत्र में रेजाणी पानी इतना जमा नहीं हो पाएगा कि वर्ष भर कुंई घड़ा भरती रह सके. इसलिए ऐसे क्षेत्रों में इसी खड़िया का उपयोग कुंडी बनाने के लिए किया जाता है। खड़िया के बड़े-बड़े टुकड़े खदान से निकाल कर लकड़ी की आग में पका लिए जाते हैं। एक निश्चित तापमान पर ये बड़े डले टूट-टूट कर छोटेछोटे टुकड़ों में बदल जाते हैं। फिर इन्हें कूटते हैं। आगोर का ठीक चुनाव कर कुंडी की खुदाई की जाती है। भीतर की चिनाई और ऊपर का गुंबद भी इसी खड़िया चूरे से बनाया जाता है। पांच-छह हाथ के व्यास वाला यह गुंबद कोई एक बिता मोटा रखा जाता है। इस पर दो महिलाएँ भी खड़े होकर पानी निकालें तो यह टूटता नहीं।

मरुभूमि में कई जगह चट्टानें हैं। इनसे पत्थर की पट्टियाँ निकलती हैं। इन पटिटयों की मदद से बड़े-बड़े कुंड तैयार होते हैं। ये पट्टियाँ प्राय: दो हाथ चौड़ी और चौदह हाथ लंबी रहती हैं। जितना बड़ा आगोर हो, जितना अधिक पानी एकत्र हो सकता हो, उतना ही बड़ा कुंड इन पट्टियों से ढंक कर बनाया जाता है।

घर छोटे हों, बड़े हों, कच्चे हों या पक्के-कुंडी तो उनमें पक्की तौर पर बनती ही है। मरुभूमि में गांव दूर-दूर बसे हैं। आबादी भी कम है। ऐसे छितरे हुए गांवों को