जाचन कतहू न जैये प्यारे

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रचनाकार:कमलानंद सिंह 'साहित्य सरोज'

जाचन कतहू न जैये प्यारे । हाथ पसारत कुल गुन गौरव, ता छन अपन गमैये ॥ त्यागत मित्र मित्रता प्यारी, बहु दिन जाहि निवाही । देखत ही मुख फेरि लेतु है, अरु बोलत कछु नाँही ॥ नृप दरबार चढ़न नहिं पावत, प्रहरी डाँटि भगावे । सब कोउ नाच नचावन चाहे, हँसि हँसि व्यंग सुनावे ॥ जाय महत्व लहे लघुता अति, दुखन दुरे केहु भाँती । वामन भो हरि वलि के आगे, द्वार खड़े दिन राती ॥ जानो यह निश्र्चय ‘सरोज’ बिन दिये नाहिं कछु पैये । बन में रहि एक बेर सागहू, आध पेट बरु खैये ।

                  जाचन कतहू न जैयें ॥