सें कुछ बोललो नै गेलों छेलै, बस होन्हे झटकलों आगू बढ़ी गेलो छेलै।
(२६)
अय्ये वैद्य आशु बाबू के पत्थ पड़लों छै। कै दिनों के बाद खाय के रुच होलै, तें मूंग के पानी रं दाल में पुरानों चौर के भात मत्थी के हुनकों आगू में राखलों गेलों छेलै, आरो कल्हे-कल्हे उठाय के हुनी वहा पीवी लेलें छेलै।
दीदी के पीठ पीछू सत्ती रात भरी बैठले रहलै, जेठानी गोतिनी के सहारा पावी झुपनियैर्ते रहली छेलै, मतर सत्ती नै सुतली छेलै; जेना नींद आँखी के चीज नै रहें, मनों के बात रहे। ई बीचों में ऊ आपनों ऐंगन गेवी करलै, तें जेना हुलकी भरै भर|
आय तेसरों दिन छेकै। भोरकवा उगै पर ऐलै, ते ऊ आपनों ऐंगन आवी गेलै। है बात छुपलों नै छेलै कि सत्ती घोर लौटी ऐलो छै। जानी तें लेले छेलै गाँवभरी तभिये, जबें ओकरों घरों के पिछुवाड़ी में झबरलों कचनार गाछी परकों चिड़िया सिनी खूब देर तांय चहचहैते रहल छेलै।
आरो जखनी बँसबिट्टी आरो बरों गाछी पर भोरको चुनमुनैवों शुरूवो नै होलों छेलै, तखनिये सें सत्ती के ऐंगनों में टोला - टोला के जनानी सिनी के ऐवों - जैवों शुरू होय गेलो छेलै।
जे नै आवें पारलों छेलै, वहू ओकरों बात केकरौ से नै केकरौ से करी रहल छेलै। पनसोखा माय तें सबके एक्के बात कही रहलों छेलै - "वैद्य दा के मॉन तें वहा दिन से बदल लागलों छेलै, जॉन दिन नैकी बोदीं मनारों पर वास करै के बात हमरा बतैले छेलै। गाँव के सीमाना पर पहुँची के हुनी सुग्गी माय के जगेलें छेलै, आरो कहले छेलै, हमरों घोर दिनों में एक झपट जरूरे झाँकी अय्यों, ननद। कुछ दिन मनारो पर वास लेली जाय रहलों छियै।”
पनसोखा माय के बातों के कोय विरोध तें नै करलकै, मतर