(२८)
सत्ती धड़फड़ाय के उठलो छेलै। ओकरा यही लागलों छेलै कि चारो दिसों से दस प्रेत ओकरा है पकड़े लें हाथ फेंकते रहें।
"की होलौं, दीदी?" मठ के एक वैरागन ने ओकरा ई किसिम से चौंकते देखी के पूछलें छेलै, “की कोय बुरा सपना देखी लेलो की? हम्मे देखी रहलो छेलियै कि तोहें बैठले- बैठले घुमनियाय रहलो छेलौ। दिन भरी, है गुफा से ही गुफा के देवता के पूजले फुरै छौ, ओकरा पर एक दाफी शिखर के मनीरों में जरूरे जॉल चढ़ाय आवै छौ, भला कोय केना नै थर्के ! ओकरा पर है वयस, कै दाफी तोरा कहैलियौं कि आश्रम में रही के सबके ध्यान करी लेलों करों। चन्दर बाबाओं तोरा कैं दाफी सफा-सफा कही के समझलकौं, मतुर तोहें सफा के जाना है ले नै चाहै छौं।”
वैरागन बहुत कुछ बोललों गेलों छेलै, मतुर सत्ती कुछ सुनतियै, तबें नी। वैं एक दाफी मनारों के ऊपर नजर दौड़लके, आरो लम्बा डेग भरतें पत्थल के बनलों सीढ़ी पर झब-झब चढ़ें लागलै। पता नै, केना के ऊ नरसिंह गुफा लुग पहुँची गेलों छेलै, आरो वही सें पत्थले पर बनलों छोटों - छोटों सीढ़ी के पार करी योगमठ के नगीच आवी गेलै। वाहीं से वैं दायां से बायां, पूरे दक्खिन के देखलकै, बड़ी निरयासी - निरयासी कें: वहाँ कोय बोहों आवै के निशान नै छेलै, चीर नद्दी तें होने शांत बनलों बही रहलों छेलै, आरो पार के बस्ती, टोला, गाछ, बिरिछ सब-के-सब वहा रं छेलै, जेना बिहैला के बाद वैं पहिलो दाफी ई मनारों से देखले छेलै।
वैं दोनों हाथों से दोनो आँख हौले सें मलतें हुऍ दौलतपुर के देखलकै, मने मन बोलले, “यहाँ से हमरों ससुरालो केन्हों साफ-साफ दिखाय छै। बस्ती भले नै दिखावै, हौ विशाल बोर गाछ सें तें हम्मे आपनों घर के पहचाने सकै छी। हुनी कहले छेलै, जो यहाँ से हम्में आपनों गाँव के कोय आदमी के हाँक लगैयै, तें ऊ आदमी हमरों हाँक सुनी लेते। “आरो जो कुछु होनो होलों होतियै, तें कुहराम नै मची गेलों होतियै। सौंसे मनार आरो एकरों सबटा गुफाओ कुहरामों से गूंजतें होतियै जरूरे हमरा भरम होय गेले, तखनी भरमैलो नै होवै, नींदे लागी गेलो होते, आरो हौ सब देखी लेलियै।" निचिन्त र होलै तें आहिस्ता-आहिस्ता चली के