Talk:रामचरितमानस:बालकाण्ड

From Wikisource
Jump to navigation Jump to search

दोहा- जथा सुअंजन अंजि दृग साधक सिद्ध सुजान। कौतुक देखत सैल बन भूतल भूरि निधान॥१॥

सुनि समुझहिं जन मुदित मन मज्जहिं अति अनुराग।

लहहिं चारि फल अछत तनु साधु समाज प्रयाग॥२॥ उदासीन अरि मीत हित सुनत जरहिं खल रीति। जानि पानि जुग जोरि जन बिनती करइ सप्रीति॥3॥

भलो भलाइहि पै लहइ लहइ निचाइहि नीचु।

सुधा सराहिअ अमरताँ गरल सराहिअ मीचु॥4॥

जड़ चेतन गुन दोषमय बिस्व कीन्ह करतार।

संत हंस गुन गहहिं पय परिहरि बारि बिकार॥5॥

भाग छोट अभिलाषु बड़ करउँ एक बिस्वास।

पैहहिं सुख सुनि सुजन सब खल करहहिं उपहास॥6॥

भनिति मोरि सब गुन रहित बिस्व बिदित गुन एक।

सो बिचारि सुनिहहिं सुमति जिन्ह कें बिमल बिवेक॥7॥

जुगुति बेधि पुनि पोहिअहिं रामचरित बर ताग।

पहिरहिं सज्जन बिमल उर सोभा अति अनुराग॥8॥

सारद सेस महेस बिधि आगम निगम पुरान।

नेति नेति कहि जासु गुन करहिं निरंतर गान॥9॥

अति अपार जे सरित बर जौं नृप सेतु कराहिं।

चढि पिपीलिकउ परम लघु बिनु श्रम पारहि जाहिं॥10॥

सपनेहुँ साचेहुँ मोहि पर जौं हर गौरि पसाउ।

तौ फुर होउ जो कहेउँ सब भाषा भनिति प्रभाउ॥11॥

गिरा अरथ जल बीचि सम कहिअत भिन्न न भिन्न।

बदउँ सीता राम पद जिन्हहि परम प्रिय खिन्न॥12॥

बरषा रितु रघुपति भगति तुलसी सालि सुदास॥

राम नाम बर बरन जुग सावन भादव मास॥13॥

एकु छत्रु एकु मुकुटमनि सब बरननि पर जोउ।

तुलसी रघुबर नाम के बरन बिराजत दोउ॥14॥

राम नाम मनिदीप धरु जीह देहरी द्वार।

तुलसी भीतर बाहेरहुँ जौं चाहसि उजिआर॥15॥

सकल कामना हीन जे राम भगति रस लीन।

नाम सुप्रेम पियूष हद तिन्हहुँ किए मन मीन॥16॥

निरगुन तें एहि भाँति बड़ नाम प्रभाउ अपार।

कहउँ नामु बड़ राम तें निज बिचार अनुसार॥17॥

सबरी गीध सुसेवकनि सुगति दीन्हि रघुनाथ।

नाम उधारे अमित खल बेद बिदित गुन गाथ॥18॥

नामु राम को कलपतरु कलि कल्यान निवासु।

जो सुमिरत भयो भाँग तें तुलसी तुलसीदासु॥19॥

राम नाम नरकेसरी कनककसिपु कलिकाल।

जापक जन प्रहलाद जिमि पालिहि दलि सुरसाल॥20॥